बुनती-उधडती ज़िन्दगी में मुझे एक नए एहसास ने छुआ। यह एहसास था आम से खास बन जाने का। दिन था ५ सितम्बर यानि टीचर्स डे...सुबह करीब१० बजे जब मैं क्लास में गया तो स्टूडेंट्स ने जिस गर्मजोशी से विश किया वो कुछ खास था...उसके बाद हर क्लास में कमोबेश यही हल था तब मुझे इस बात का एहसास हुआ की दिन नही लोगो की वजह से आप आम से खास हो जाते हैं...शाम को जब मैं तमाम गिफ्ट के साथ घर पंहुचा तो मैं बहुत खुश था...खाना खाने के बाद जब मैं खास होने के एहसास को एन्जॉय कर रहा था की मुझे मेरे ज़मीर ने आवाज़ दी जैसे कह रहा हो नवाज़ खास तुम नही खास वो है जिन्होंने तुम्हे इस एहसास से रूबरू किया इस सच्चाई को समझते ही मेरे पैर बिस्तर पर और मुस्कान चेहरे पर फैल गई...इस एहसास से मैं खुश था बहुत खुश। मैं जान चुका था की खास तो मेरे स्टुडेंट हैं जो मुझ जैसे आम इंसान को खास होने का एहसास करते है। इस मौके पर मुझे जावेद अख्तर साहब के कलाम की एक किताब भी मिली उसी के चंद अशार पेश कर रहा हूँ ...
'मैं ख़ुद भी सोचता हूँ की क्या मेरा हाल हैजिसका जवाब चाहिए वो क्या सवाल है ' ऐ सफर इतना राऐगा तो न जा
न हो मंजिल कहीं तो पहुँचा दे
आप सब भी अपनी मंजिल तक पहुंचे यही मेरी दुआ है ।